ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥13॥
ॐ निराकार भगवान के स्वरूप का प्रतिनिधित्व करने वाला मंत्र; इति–इस प्रकार; एक-अक्षरम्-एक अक्षर; ब्रह्म-परम सत्य; व्याहरन्-उच्चारण करना; माम्-मुझको; अनुस्मरन्-स्मरण करते हुए; यः-जो; प्रयाति–प्रस्थान करना; त्यजन्–छोड़ते हुए; देहम्-इस शरीर को; सः-वह; याति प्राप्त करता है। परमाम्-परम; गतिम्-लक्ष्य।
BG 8.13: जो देह त्यागते समय मेरा स्मरण करता है और पवित्र अक्षर ओम का उच्चारण करता है वह परम गति को प्राप्त करेगा।
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पवित्र अक्षर ओम को प्रणव भी कहा जाता है जो निर्विशेष ब्रह्म, भगवान के निर्विशेष, निर्गुण निराकार अभिव्यक्ति की ध्वनि का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए इसे भगवान के समान अविनाशी माना जाता है। क्योंकि श्रीकृष्ण अष्टांग योग साधना के संदर्भ में साधना की क्रिया का वर्णन कर रहे हैं वे कहते हैं कि तपस्या और ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का अभ्यास करते हुए साधक को अपना मन केन्द्रित करने के लिए पवित्र शब्द ओम का उच्चारण करना चाहिए। वैदिक साहित्य में भी ओम शब्द को 'अनाहत नाद' कहा गया है। यह वह ध्वनि है जो समूची सृष्टि में व्याप्त रहती है और इसे वे योगी सुन सकते हैं जो इसे सुनने में समर्थ हैं।
बाइबिल में कहा गया है, "आरम्भ में शब्द था और शब्द भगवान के साथ था और शब्द भगवान था।" (जॉन-1.1) वैदिक ग्रंथों में वर्णन है कि भगवान ने सर्वप्रथम शब्द उत्पन्न किया और शब्द से आकाश और फिर इसके पश्चात सृष्टि के सृजन की प्रक्रिया आरम्भ की। मूल शब्द 'ओम्' था। इसलिए वैदिक दर्शन में इसे अत्यधिक महत्व दिया गया है। इसे महावाक्य या वेदों की महान स्पंदन ध्वनि कहा गया है। इसे बीज मंत्र भी कहा जाता है क्योंकि प्रायः इसका उच्चारण वैदिक मंत्रों जैसे ह्रीं, क्लीं इत्यादि वेदों मंत्रों के प्रारम्भ में किया जाता है। 'ओम' शब्द तीन अक्षरों अ-उ-म से निर्मित है। ओम का शुद्ध उच्चारण हमें अपनी नाभि और खुले गले और मुख से 'अ' की ध्वनि उत्पन्न कर आरम्भ करना चाहिए। यह 'ऊ' ध्वनि जो मुँह के मध्य से उच्चारित होती है, में मिल जाती है और अंतिम अनुक्रम में मुँह को बंद कर 'म' का उच्चारण किया जाता है।
ओम के उच्चारण अ-ऊ-म के तीनों वर्गों के अनेक अर्थ और व्याख्याएँ हैं। भक्तों के लिए ओम भगवान के व्यक्तित्वहीन निराकार स्वरूप का नाम है।
प्रणव शब्द अष्टांग योग साधना का लक्ष्य है। भक्ति योग के मार्ग के भक्त भगवान के व्यक्तिगत नामों जैसे-राम, कृष्ण, आदि का नाम लेकर साधना करना पसंद करते हैं क्योंकि भगवान के आनन्द का रस इन विशिष्ट नामों में व्याप्त होता है। इनका भेद गर्भ में पल रहे बच्चे और गोद में लिए हुए बालक जैसा होता है। गोद में उठाए हुए बच्चे का सुखद अनुभव गर्भ में पल रहे बच्चे की अपेक्षा अधिक होता है। हमारी साधना की अंतिम परीक्षा मृत्यु के समय पर होती है। वे लोग जो अपनी चेतना को भगवान पर स्थिर करने के योग्य हो जाते हैं, वे मृत्यु के समय घोर पीड़ा सहने पर भी इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं। ऐसे लोग शरीर त्याग कर परम धाम प्राप्त करते हैं। यह सब अत्यंत कठिन है और इसके लिए जीवनपर्यन्त अभ्यास करना आवश्यक होता है। अगले श्लोक में श्रीकृष्ण ऐसी प्रवीणता प्राप्त करने के लिए सरल उपाय की व्याख्या करेंगे।